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14/07/2013  
ज्ञान, त्याग व तपस्या की त्रिमूर्ति थे स्वामी कल्याणदेव
 

जफ्फरनगर। देवभूमि भारत वर्ष ऋषि-मुनियों और सन्त-महात्माओं का देश है। भारत माता समय-समय पर महान विभूतियों को जन्म देकर अपना गौरववर्द्धन करती रही है। इन पूज्य महान विभूतियों ने अपने ज्ञान, कर्मयोग, त्याग और तपस्या से प्राणी मात्र की सेवा करके अखिल विश्व की महती रक्षा की है। ऐसी ही एक महान सन्त विभूति, निष्काम कर्मयोगी, तप, त्याग और सेवा की साक्षात मूर्ति वीतराग स्वामी कल्याण देव महाराज हुए। जिनका जन्म लगभग 123 वर्ष पूर्व पावन गंगा यमुना की अन्तर्वेदी उत्तर प्रदेश के वर्तमान जनपद बागपत के गांव कोताना में एक कर्मशील एवं धर्मपरायण परिवार में उनके ननिहाल में हुआ था, जिनका बाद में पालन पोषण जनपद मुजफ्फरनगर के अपने गांव मुंडभर में हुआ था।

धार्मिक परिवार के संस्कारों के कारण वे बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के तथा ईश्वर भक्त थे। बाल्यकाल में ही आपको वैराग्य हो गया था और अल्पायु में ही घर से निकल पड़े और पैदल ही सम्पूर्ण देश का भ्रमण करते हुए उत्तराखण्ड पहुंचे तो स्वामी पूर्णानन्द महाराज गुरू के रूप में प्राप्त हुए। ऋषिकेश में परमपूज्य गुरूदेव स्वामी पूर्णानन्द ने आपको सन्यास की दीक्षा दी। गुरू जी ने आपका नाम स्वामी कल्याणदेव रखा। तत्पश्चात गुरू की आज्ञा से उत्तराखण्ड में रह कर घोर तपस्या तथा शास्त्रों का अध्ययन किया।
देशभ्रमण के समय उस युवा सन्त को पराधीन देश में सामाजिक जीवन स्तर के बहुत से ऐसे कटु अनुभव हुए जिन्होंने इन्हें झकझोर कर रख दिया जिससे इनके मन में नयी चेतना जागृत हुई। इन्होंने अनुभव किया कि देश में बड़ी गरीबी है, शिक्षा और चिकित्सा का अभाव है और भी बहुत सी सामाजिक बुराइयां और कुरीतियां चारों ओर पफैली हैं। इन्हांेने इनको दूर करने के लिए शिक्षा और चिकित्सा के उत्थान हेतु कार्य करने का निश्चय कर लिया। यह सेवा भाव इनके मन-मस्तिष्क में प्रतिष्ठित हो गया। उनका मानना था कि जब देश के नागरिक शिक्षित और स्वस्थ हांेगे तब सभी समस्याएं दूर हो सकेंगी और देश उन्नत होगा। आपने विवेकपूर्ण निर्णय लिया कि त्याग और तपस्यामय जीवन व्यतीत करने के लिए शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्रा में निःस्वार्थ समाजसेवा की जाए। इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ें।

अद्वितीय व्यक्तित्व और अदम्य साहस के धनी स्वामी कल्याण देव ने देश, समाज एवं मानवता और उससे आगे बढ़कर ग्रामीण गरीब जनता की निःस्वार्थ समाज सेवा में एक शताब्दी पूर्ण कर ली थी। अपने सौ वर्ष के सेवाकाल में स्वामी जी ने भारत में राष्ट्रीय महत्व की लगभग तीन सौ संस्थाएं स्थापित की हैं जिनमें तकनीकी शिक्षा, आयुर्वेद मैडिकल कालेज, कृषि कालेज, कृषि विज्ञान केन्द्र, आयुर्वेद अनुसंधान केन्द्र, डिग्री कालेज, इण्टर कालेज, माध्यमिक विद्यालय, नवोदय विद्यालय, कन्या विद्यालय, जूनियर हाईस्कूल, प्राथमिक विद्यालय, चिकित्सालय एवं औषधालय, नेत्र चिकित्सालय और संस्कृत पाठशालाएं, उद्योगशाला, अम्बेडकर छात्रावास, धर्मशालाएं, मूक बधिर एवं अन्ध विद्यालय, योग प्रशिक्षण केन्द्र, वृद्ध आश्रम, वृद्धा गऊशालाएँ, अनाथालय, शहीद स्मारक तथा अनेक आध्यात्मिक एवं धार्मिक केन्द्र तथा उद्योग केन्द्र आदि प्रमुख हैं। इनमें हर जाति, हर धर्म, गरीब, अमीर के लड़के-लड़कियां लाखों की संख्या में शिक्षा प्राप्त करते हैं। उन्होंने कई सौ संस्थाएं स्थापित की परन्तु स्वयं पदाध्किारी नहीं बने। सम्पूर्ण उत्तरी भारत विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और उसके सीमावर्ती प्रान्तों हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरांचल, जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रान्तों के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वामी जी का व्यापक कार्य और प्रभाव रहा है।

इसके अतिरिक्त स्वामी कल्याणदेव ने समाजसेवा के अन्तर्गत महिला एवं बाल कल्याण, स्वदेशी प्रचार, दलित एवं अछूतोद्धार, मद्यनिषेध, पर्यावरण की रक्षा तथा साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिए महान कार्य किये। बाल विवाह, दहेज प्रथा और पारिवारिक विवादों को समाप्त करने के लिए स्वामी जी ने आशातीत कार्य किये। उत्तर भारत का वह कौन सा नगर, गांव व प्रदेश होगा जहां पूज्य स्वामी जी महाराज के समाज कल्याण के पुण्य कार्यों का शंखनाद न गूंजता हो। आज के संसार को आश्चर्य इस पर अवश्य होगा कि इस कोरे स्वार्थमय सामाजिक वातावरण में आपने अपने महान कल्याणकारी संस्थान करोड़ों-अरबों की दान राशि से बनवाकर राष्ट्र को समर्पित करते हुए गीता के सच्चे निष्काम कर्मयोगी सन्त जीवन का सराहनीय उदाहरण आज के संसार के सामने उपस्थित किया।

स्वामी जी आविर्भूत सन्त थे। वे अद्भुत निष्ठा और विलक्षण, गरिमामय व्यक्तित्व की साक्षात मूर्ति थे। उनका जीवन इतना सहज और सरल था कि साधारण व्यक्ति, निर्धन और गरीब दीन-दुःखियों से हर समय मिलते रहे और उनके दुःख दर्दों का निवारण करते थे। यही कारण है कि स्वामी जी जन-जन में इतने लोकप्रिय हुए कि सभी उनको अपना मानते थे और वे सबको अपना मानते थे। उन्होंने जाति-पांति के भेदभाव से परे साम्प्रदायिकता के आवरण को दूर पफंेक कर एक सच्ची ईश्वरीय निष्ठा का प्रतिपादन करते हुए समाजसेवा का अनूठा कार्य किया है। हृदय की शुद्धता, आचरण की उच्चता और समाजसेवा को प्रधानता देने वाले ऐसे मस्तमौला सन्त संसार में कहीं देखने को नहीं मिलेंगे।

इसके साथ ही बड़े-बड़े राजनेता, धार्मिक एवं आध्यात्मिक जगत की महान विभूतियां सदैव आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु आपका सान्निध्य पाने को उत्सुक रहते थे। मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू, डा. राजेन्द्र प्रसाद, गुलजारी लाल नन्दा, लाल बहादुर शास्त्री, डा. सम्पूर्णानन्द, गोविन्द वल्लभ पंत, संत विनोबा भावे, जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह, रफी अहमद किदवई, जनरल शाहनवाज खां, कमलापति त्रिपाठी, ज्ञानी जैल सिंह, वी.पी. सिंह आदि लोगों से स्वामी जी के आत्मीय सम्बन्ध रहे जो स्वामी जी के महत्वपूर्ण सुझावों और शुभकामनाओं को पाकर धन्य होते रहे। स्वामी जी ने समाज सेवा के कार्य मंे सर्वप्रथम यह अनुभव किया कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः शिक्षा का अभाव है। देश की आबादी की 80 प्रतिशत जनता गांवों मंे बसी है। हमारा देश गांवांे मंे बसा है। गांववासी शिक्षित और स्वस्थ होंगे तो देश उन्नत होगा इसीलिए आपने ग्रामीण क्षेत्रा में शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार पर बल दिया। स्वामी जी द्वारा स्थापित अधिकतर शिक्षण संस्थाएं दूर-दूर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हैं। सामाजिक संस्थाओं के प्रति इनकी सजगता स्तुत्य थी और समस्याओं के सम्यक समाधन के लिए चेष्टा वरेण्य है। आप अपनी धुन के धनी थे विशेषकर नवयुवकों के लिए वह पथप्रदर्शक और आदर्श हैं। रचनात्मक सेवा ही आपके पूरे जीवन का ध्येय रहा है। सत्ता की राजनीति में शामिल होना आपने कभी पसन्द नहीं किया, परन्तु सत्ता के शिखर को छूने वालों का निर्माता आपको कहा जाता था। आपकी ईमानदारी, त्याग-वृत्ति, गहन अध्ययन, विचारशीलता और सदैव दीन-दुखियों के हितचिन्तन में व्यस्त रहने की आदत ने छोटे बड़े, गरीब-अमीर सबका आदरणीय और वन्दनीय बना दिया। स्वाभिमान के साथ सच्ची और खरी बात कहने का गुण और कभी भी किसी भी परिस्थिति में निराश न होने की मनोवृत्ति ने आपके व्यक्तित्व को अद्भुत चमकदार बना दिया। आप अपने सिद्धान्तों के पक्के थे। स्वभाव के विपरीत कोई भी बात आपको नहीं भाती, उसके लिए सहसा डांट देते थे। आपके रहने का ढंग और आदत अनोखी थी, उसमें वह किसी को नहीं मानते, न समझौता करते, भले ही आप अति वृद्ध हो गये थे। आप अपने विचार स्वयं स्थिर करते थे। आपमें निर्णय लेने की विवेकपूर्ण शक्ति थी। जो भी व्यक्ति उत्स को ऊर्ध्वगामी कर निज के जीवन को त्सव जैसा सम्मानीय बनाना चाहता है, उसको आपके जीवन और कार्यों से प्रेरणा मिलती है। ऐसे वन्दनीय श्र(ेय और प्रेरक, महान व्यक्तित्व को शत्-शत् नमन।

भारत सरकार ने स्वामी जी की महान राष्ट्र-सेवाओं को सराहते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने आपको पदम्श्री की उपाधि से सम्मानित किया था। स्वामी जी को पहला नन्दा नैतिक पुरस्कार तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने राष्ट्रपति भवन में प्रदान किया। वर्ष 2000 में स्वामी जी के महान कार्यो एवं समाज सेवा को सराहते हुए राष्ट्रपति केआर नारायणन ने स्वामी जी को पद्म भूषण से विभूषित किया

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