18/08/2014 |
विश्व हिन्दू परिषद् : एक अनन्य यात्रा |
रघुनन्दन प्रसाद शर्मा ने अपनी पुस्तक विश्व हिन्दू परिषद की विकास यात्रा में लिखा है कि मध्यप्रदेश सरकार द्वारा राज्य में अशिक्षित, आर्थिक कमजोर, अस्पृश्य समाज, वनवासी, गिरिवासी आदि को अमेरिका इत्यादि अन्य देशों से आने वाले करोडों डालरों की मदद से तरह तरह के हथकंडे अपनाकर ईसाई पादरियों द्वारा धर्मांतरित किए जाने की समस्या की वास्तविकता जानने हेतु वर्ष 1955 में नियुक्त नियोगी कमीशन की
रिपोर्ट ने विश्व हिन्दू परिषद के गठन का तात्कालिक कारण बना. वर्ष 1957 में नियोगी
कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही देश भर में हडकंप सा मच गया क्योंकि इस
रिपोर्ट में ईसाई पादरियों द्वारा अपनाए जा रहे तरह तरह साधनों का व्यवहारिक
आधार पर विश्लेषण देश में पहली बार हुआ था. इस रिपोर्ट के अनुसार विदेशी धन के
आधार पर पादरीगण बडे बडे स्कूल, छात्रावास, अनाथालय, अस्पताल इत्यादि सेवा
कार्यों के माध्यम से भारत के निर्धन समाज को बडी आसानी से ईसाई पंथ में बहुत ही
सरलता से धर्मांतरित कर लेते थे. इस समस्या के साथ साथ हिन्दुस्थान समाचार के
प्रतिनिधि के तौर पर विदेशों की यात्रा के दौरान हुए अनुभव से हिन्दुस्थान समाचार
के संस्थापक दादा साहब आप्टे भारत की संस्कृति से शनै: शनै: दूर होते जा रहे
विदेशों में बसे भारतीयों की दशा से बहुत चिंतित थे. इस संबंध में श्री आप्टे की
व्याकुलता को लोकमान्य तिलक मराठी दैनिक केसरी में छपे उनके लेखों को पढकर अनुभव
किया जा सकता है. उन्होनें लिखा कि अब हिन्दुओं के अंतर्राष्ट्रीय संग़ठन की
आवश्यकता हो गई है क्योंकि हिन्दू समाज के महापुरुष राम, कृष्ण, मनु, याज्ञवल्क्य
जैसे मनीषियों के सामाजिक आदर्श आज नही है. त्रिनिदाद में भारत से लगभग 150 वर्ष
पूर्व गए हिन्दू बडी संख्या में रह रहे थे. वे धीरे धीरे अपनी मातृभूमि से कट
चुके थे. परिणामत: वें हिन्दू संस्कारों से वंचित होते जा रहे थे. अपनी संतानों और
भावी पीढी के बच्चों को पाश्चात्य प्रभावों से बचाने की दृष्टि से कालांतर में त्रिनिदाद
के सांसद डा. शम्भूनाथ कपिलदेव को त्रिनिदाद में रह रहे हिन्दू परिवारों ने अपना
प्रतिनिधि बनाकर भारत सरकार के पास भेजा ताकि भारत सरकार इस सूख रही हिन्दू धारा
को सजीव करने हेतु कुछ पंडित भिजवाने की व्यवस्था करे. परंतु भारत सरकार के पास इस
प्रकार की कोई दूरदृष्टि न होने कारण डा. शम्भूनाथ कपिलदेव को बहुत निराशा हुई. तत्पश्चात
श्री कपिलदेव की भेंट माधव सदाशिव गोलवलकर श्री गुरू जी से हुई. श्री गुरू जी ने
तात्कालिक तौर पर त्रिनिदाद के माननीय सांसद की समस्या का समाधान तो कर दिया परंतु
श्री गुरू जी ने हिन्दू की इस दशा पर वैश्विक स्तर पर चिंतन किया और अंत्तोगत्वा
उन्हे विश्व स्तर एक हिन्दू संगठन बनाने की युक्ति सूझी. मुम्बई के स्वामी चिन्मयानन्द
विश्वभर में हिन्दू संस्कृति का प्रचार प्रसार करने में लगे थे. वे युवा पीढी को
हिन्दू संस्कृति से अवगत करवाना चाह रहे थे. अपने इस परिभ्रमण के कारण उनके मन में
हिन्दुओं के एक विश्वव्यापी संगठन की इच्छा बलवती हो चुकी थी. अपने इस चिंतन को
स्वामी जी ने अपनी पत्रिका तपोवन प्रसाद के नवम्बर 1963 के अंक में लिखा भी था. इन्ही
सब मानक बिन्दुओं पर चिंतन करते हुए माधव सदाशिवराव गोलवलकर की प्रेरणा से श्री आप्टे जी ने लगातार
नौ मास तक सतत प्रवास किया. अंतत: सर्वश्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर , एस. एस.
आप्टे, स्वामी चिन्मयानन्द जैसे भारत के अनेक महानतम विचारकों, श्रेष्ठतम
धर्माचार्यो और उच्चतम सामाजिक चिंतको के बीच परस्पर संवाद और चिंतन मनन चल रहा
था. इसी सामूहिक विचार-विमर्श का अंकुर विश्व हिन्दू परिषद् के रूप
में प्रस्फुटित हुआ जिसकी स्थापना मुम्बई के सान्दीपनी साधनालय में 29 अगस्त, 1964 मे जन्माष्ट्मी के दिन हुई.
इस पृष्ठभूमि में ही विश्व हिन्दू परिषद नामक एक सामाजिक संगठन अस्तित्व में
आया. विश्व हिन्दू परिषद भारत तथा विदेशों में रह रहे हिन्दुओं की एक सामाजिक,
धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्था है. परंतु वर्तमान समय में प्राय: विश्व हिन्दू
परिषद नाम की चर्चा आते ही हमारे मन मस्तिष्क में एक ऐसे संगठन की छवि परिलक्षित
होती है जिसका प्रमुख कार्य भारत के हिन्दुओं की ठेकेदार के रूप में धरना प्रदर्शन करना ही है जबकि वास्तविकता इससे कहीं परे है. इतिहास साक्षी है कि जिस
राष्ट्र के नागरिक वहां की संस्कृति, पूर्वजों, धर्म, मान्यताओं, मूल्यों और आदर्शों को विस्मृत कर देते है तो उस राष्ट्र का अस्तित्व अधिकतम
दिन तक नहीं रह जाता, यही शाश्वत सत्य है. हमें सदैव याद रखना चाहिए कि विश्व की
सभी प्राचीन सभ्यताओ में से सिर्फ भारतीय सभ्यता का ही अस्तित्व बचा है बाकी सभी
सभ्यताएं कालग्रसित हो चुकी है. समय बीतता गया. पराधीनता की बेड़ियों के विरुद्ध
हजारो वर्षों से अनवरत चल रहे संघर्षों के पश्चात हिन्दुस्तान ने अपने को स्वतंत्र
कर उन्मुक्त गगन में अपना झंडा तो लहराया परन्तु अपनी उन सभी विशिष्टताओं और महान
आदर्शो को विस्मृति के गहन अन्धकार में धकेलना भी शुरू कर दिया जिसकी वजह से वह
अपनी प्राचीन विरासत के बल पर अखिल-विश्व के मानस पटल पर छाप छोड़ता हुआ विश्व
गुरु के पद पर आसीन रहा. उसने अपने गौरवशाली विज्ञान, इतिहास, अर्थशास्त्र, जीवन दर्शन जैसी
श्रेष्ठतम ऋचाओं के साथ-साथ श्रीराम, श्रीकृष्ण, गौतम, महावीर, गुरुनानक जैसे पुरखों तथा उनके मार्गदर्शनों
जिनका उल्लेख रामायण, महाभारत, गीता
जैसे उच्च कोटि-ग्रंथों में मिलता है, को भी विस्मृत कर किनारे लगा दिया. भौतिकता की आंधी में दुर्दांत आक्रंताओ को
धूल चटाने वाला और संजीवनी जैसी औषधियों से उन्नत हिमालय, पतित पावनी
गंगा, पुण्य प्रदायी तीर्थ, सर्वदुःखनाशक और समृद्धि की प्रतीक गईया की
महानता को भी हमने विस्मृति के हवाले कर दिया. परिणामतः स्वत्व और गौरव के अभाव
में सर्वे भवन्तु सुखिनः और वसुधैव कुटुम्बकं का उद्घोष करने वाली दिव्य संस्कृति उदासीनता की
भेट चढ़ गयी. नर से नारायण तक का मार्ग प्रशस्त करने वाली संस्कृति भेदोपभेद के
परिणामस्वरूप पतनोन्मुख हो गयी. स्वतन्त्रता-पश्चात भी भारत माता ऐसी विषम
परिस्थितियों और विनाशकारी तत्वों से जकड़ी हुई थी जिनके दमन की नितांत आवश्यकता
के साथ साथ भारत को पुनः उसी परमवैभव तक पहुचाने की अनिवार्यता हो गयी थी. संसार
का मार्गदर्शन करने वाली समाज-व्यवस्था को विभिन्न प्रकार
की विकृतियों और कुरीतियों ने अपनी चपेट में ले लिया. सामाजिक समरसता को
अस्पृश्यता की नजर लग गयी. इतना ही नही भारत का समाज आज जाति प्रथा नामक कुरीति
के चंगुल में फँस गया है. समाज से जाति प्रथा नामक इस कुरीति को दूर करने का हम
सबको मिलकर प्रयास करना होगा. अत: हम सबका यह परम कर्तव्य है भारतीय समाज को जाति
नामक दंश से मुक्त किया जाय तभी वास्तव में हम अपने समाज के साथ न्याय कर पाएँगे. |
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