27/11/2014 |
हम 2500 वर्ष पहले बहुत अधिक मानवीय रह चुके हैं : मोहसेन माखमलबाफ |
हम एक दूसरे को मारने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। यह ईरानी फिल्म निर्माता मोहसेन माखमलबाफ का कहना है, जिनकी फिल्मों को लेकर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं कि वे नफरत को बढ़ावा देती हैं और समाज में हिंसा की संस्कृति में इज़ाफा करती हैं। मोहसेन का जन्म किसी संपन्न परिवार में नहीं हुआ था। आर्थिक
परेशानियों
के चलते शुरू से
ही उन्हें संघर्ष
करना पड़ा और
देश के उस समय के
राजनैतिक
हालातों ने
उन्हें ईरान
के शाह मुहम्मद
रज़ा पहलवी के
शासन के खिलाफ
खड़ा होने के
लिए मजबूर कर दिया।
इसका नतीजा यह
हुआ कि 17 वर्ष
की अल्पायु
में ही उन्हें
जेल की सजा हुई।
जिस समय वह
अपनी सजा काट
रहे थे, 1979 में
ईरान में इस्लामिक
क्रान्ति
हुई जिसके
चलते शाह को
सत्ता से बाहर
होना पड़ा और
अचानक मोहसेन
को रिहा कर
दिया गया। उनके बचपन
में सिनेमा पर
बात करने पर
पूरी तरह
मनाही थी। उनका
कहना है मैं किसी
थियेटर के
बजाए मस्जिद
में पला-बढ़ा
हूं। उनके
जीवन पर उनकी
दादी का सबसे
अधिक प्रभाव था
जो एक बहुत ही धार्मिक
महिला थी और
उन्हें
लगातार
सिनेमा से दूर
रहने की
चेतावनी देती थी।
उनकी दादी ने
उन्हें यह
बात स्पष्ट
रूप से बताई थी
कि सिनेमा
उनके लिए
सिर्फ नर्क के
दरवाजे खोल
सकता है लेकिन
नियति को कुछ
और ही मंजूर
था और उसने
मोहसेन के लिए
कुछ खास
संजोकर रखा
था। सिनेमा की
दुनिया ने
मोहसेन की
आंखें खोली और
इस माध्यम के
जरिए पूरी
दुनिया के
दरवाजे उनके लिए
खुलते चले गए। मोहसेन
के काम में
धीरे-धीरे परिपक्वता
आई और समय के
साथ-साथ इसमें
निखार आता
गया। जीवन में
विभिन्न
प्रकार के द्वंदों
और अलग सोच
होने की वजह
से ये सभी
उनकी फिल्मों
में प्रमुखता
से दिखते हैं।
मोहसेन खुद स्वीकार
करते हैं मैं
अभी भी सीख
रहा हूं और हर
रोज एक नए
विश्व को खोज
रहा हूं। उनकी
शुरूआती फिल्मों
में मजबूत धार्मिक
थीम देखने को
मिलती है। उदाहरण
के तौर पर (द
ट्रायलोजी, जिसमें
नासूह का पश्चाताप
है)। उनकी बाद
की फिल्मों
में वैश्विक
बंधुत्व और
शांतिपूर्ण
सह-अस्तित्व
का बेमिसाल संयोग
दिखता है। उदाहरण
के तौर पर
फिल्म ए मूमेन्ट
ऑफ इनोसेन्स
उनके खुद के
बदलाव की
कहानी है, जिसमें
चे गुएवरा के
सिद्धांतों
से प्रभावित होकर
उनको एक
गोरिल्ला
विद्रोही से
लेकर एक शांतिप्रिय
आदमी बनने का सिनेमेटिक
वर्णन है। जो
महात्मा
गांधी के
आदर्शों को
जीवन में आत्मसात
करता है। उनकी
फिल्म द
गार्डनर यह दर्शाती
है कि आज विभिन्न
पीढ़ियां किस
प्रकार धर्म
और शांति को
देखती हैं।
मोहसेन की सभी
फिल्मों में
सक्रियता के
लिए आग्रह
पूर्ण रूप से
दिखाई देता
है। महात्मा
गांधी, जिड्डू
कृष्णामूर्ति
के कार्यों और
विचारों से
गहराई से
प्रभावित मोहसेन
का मानना है कि
विश्व को सिखाने
के लिए भारत के
पास अभी काफी
कुछ है। उनका
कहना है कि मैं
भारत की
विविधता और सद्भावना
को बहुत अधिक
पसंद करता
हूं। गोवा में
जारी 45वें अंतर्राष्ट्रीय
भारतीय फिल्म
महोत्सव की
शुरुआत
मोहसेन की
फिल्म द प्रेसिडेन्ट
से हुई जिसमें
एक तानाशाह की
कहानी दर्शयी गई
है जिसका तख्तापलट
करके उसे गिरफ्तार
कर लिया जाता
है और अंत में
किस तरह उसका
उन्हीं लोगों
से आमने-सामने
होता है जिन
पर कभी उसने
अमानवीय अत्याचार
किए थे। मोहसेन
को उनकी फिल्मों
तथा कार्यों
के लिए विश्व
में काफी सराहा
गया है लेकिन हाल
ही में कोरिया
में मिले 18वें
मानही शांति
पुरस्कार को
लेकर वह बहुत
ही भावुक हो
जाते हैं। उनका
कहना है मैं
इस पुरस्कार को
इसलिए महत्वपूर्ण
मानता हूं क्योंकि
इसके नाम में ही
शांति है। पुरस्कार
चयन समिति का
कहना था कि
उन्होंने
मोहसेन को यह
सम्मान देने
के लिए चुना
क्योंकि उन्होंने
हमेशा दमन और
अत्याचारों
का विरोध करते
हुए एक कलात्मक
जीवन जिया। मोहसेन
ने यह पूछे
जाने पर कि
उनकी सबसे अच्छी
फिल्म कौन सी
है, तो इस बारे
में उनका कहना
था कि यह
प्रश्न ठीक
ऐसा ही है
जैसे किसी पिता
से पूछा जाए
कि वह अपने
बच्चों में
से किसे अधिक
पसंद करता है क्योंकि
एक के मुकाबले
दूसरे को पसंद
करना बहुत ही
कठिन काम है।
उनकी दोनों बेटियां
समायरा और
हाना तथा बेटा
मेसाम फिल्म
निर्माता हैं
और उनकी पत्नी
मरजीह भी इसी
क्षेत्र से
जुड़ी हुई। वे
इस समय गोवा
में आईएफएफआई
में शिरकत कर
रही हैं। गोवा
में जारी फिल्म
महोत्सव में
उनकी पत्नी
की फिल्म द डे
व्हेन आई बीकेम
ए वुमेन तथा
मोहसेन की आठ
फिल्मों को
दिखाया गया।
हाल ही में
बीबीसी ने
मोहसेन पर एक
वृत्तचित्र
''डैडीज़ स्कूल''
का निर्माण
किया जिसमें
यह बताया गया
कि किसी फिल्म
स्कूल में
शामिल होने के
बजाए आखिर क्यों
समायरा, हाना
और मेसाम ने अपने
पिता से फिल्म
निर्माण कला
की बारीकियां
सीखने को ज्यादा
तबज्जो दी। समायरा
की फिल्म पंज-ए-अस्र
(दोपहर में
पांच बजे) को
वर्ष 2003 में 34वें
आईएफएफआई में स्वर्ण
मयूर पुरस्कार
से सम्मानित
किया गया था। |
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