02/02/2015 | ||||||||||||
बच्चों और महिलाओं के विरूद्ध यौन उत्पीड़न संबंधी कानूनी प्रावधान | ||||||||||||
14 नवम्बर, 2012 को यौन उत्पीड़न से बच्चों की सुरक्षा (पॉसको) अधिनियम लागू किया गया था, जिसके कारण 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों के विरूद्ध यौन हिंसा संबंधी कानूनों में आमूल परिवर्तन हुआ था।
� यौन
उत्पीड़न से
सुरक्षा और
बचाव संबंधी
बच्चों के
अधिकार को
सुनिश्चित
करना � यौन
गतिविधि के
लिए लालच या
दबाव के प्रति
बच्चों की
सुरक्षा � बच्चों
को वेश्यावृत्ति
और अश्लील
चित्रण के लिए
उत्पीडि़त
करने से बचाना
� बच्चों
के हितों को
ऐसे मामलों
में गवाही को
दर्ज करने,
मामले की जांच
करने, मुकदमा
चलाने और उसकी
रिकॉर्डिंग
के दौरान
कानूनी सुरक्षा
प्रदान करना � संवेदनशील
और मुकदमे जल्द
तय करने के
लिए विशेष न्यायालयों
का गठन उपरोक्त
अधिनियम के
तहत 18 साल से कम
आयु के लड़कों
और लड़कियों
को यौन उत्पीड़न
के दायरे में
रखा गया है।
इस अधिनियम
में लिंग भेद
न करते हुए इसके
दायरे में 18
वर्ष से कम
आयु के लड़कों
और लड़कियों
के विरूद्ध
होने वाले यौन
उत्पीड़न को
रखा गया है और
इसके दायरे को
मात्र शील-भंग
तक सीमित न
रखकर ऐसे
अपराधों में
भी शामिल किया
गया है जो
भारतीय दंड
संहिता के तहत
दुष्कर्म के
दायरे में
नहीं आते।
अधिनियम में
जांच और
मुकदमे के
दौरान बच्चों
की रक्षा के
लिए कड़ी सजा
और कई
प्रक्रियात्मक
सुरक्षा
उपायों का भी
प्रावधान
किया गया है। परन्तु,
मीडिया में
इसकी कम ही
चर्चा हुई और
पुलिस भी बच्चों
के विरूद्ध
यौन आक्रमण के
मामलों में
भारतीय दंड
संहिता की
धाराओं का ही
लगातार इस्तेमाल
करती रही।
परिस्थितियों
में बदलाव उसी
समय आया जब
जनवरी, 2013 में
दिल्ली में
एक 23 वर्षीय
पैरा-मेडिक के
साथ जघन्य
सामूहिक दुष्कर्म
हुआ और उसकी
हत्या कर दी
गई। इस घटना
के विरूद्ध
भारी विरोध और
रोष पैदा हुआ
तथा भारत में
महिलाओं के
खिलाफ होने
वाली यौन
हिंसा के
प्रति पूरे
विश्व का ध्यान
आकर्षित हुआ।
उस दौरान
मीडिया में इन
सवाल पर बहस
भी उठी कि क्या
ऐसे मामलों के
खिलाफ हमारे
पास कारगर और
कड़े कानूनी
प्रावधान
हैं। इसके
जवाब में,
सरकार ने न्यायमूर्ति
जे. एस. वर्मा
(अब स्वर्गीय)
की अध्यक्षता
में एक समिति
का गठन किया,
जिसने यौन हिंसा
से निपटने के
लिए आवश्यक
कानूनी
प्रावधान और
सिफारिशें
सरकार को सौंपी।
इन सिफारिशों
के आधार पर
सरकार ने संसद
में विधेयक का
मसौदा रखा, और
बिना किसी
विलम्ब के
तीन अप्रैल, 2013
को एक संशोधित
कानून
प्रभावी हुआ,
जिसने भारतीय
दंड संहिता,
आपराधिक
प्रक्रिया
संहिता तथा
भारतीय
साक्ष्य
अधिनियम की
प्रासंगिक
धाराओं में
आमूल परिवर्तन
की दिशा दी।
इन बदलावों के
बाद यौन हिंसा
की परिभाषा और
महिलाओं तथा
बच्चों के
सुरक्षा
संबंधी
कानूनी पहलू
कमोबेश समान
हैं। आसानी के
लिए इन्हें
तालिका रूप
में नीचे दिया
जा रहा है:- पॉसको
अधिनियम, 2012 के
महत्वपूर्ण
प्रावधान अधिनियम
के तहत उत्पीडि़त
: 18
वर्ष की आयु
के नीचे कोई
भी व्यक्ति,
चाहे वह नर हो
या नारी। अधिनियम
के तहत
अभियुक्त : कोई
भी व्यक्ति, नर और
नारी, व्यस्क
या बच्चा। नोट:- जहां
तक बच्चों के
विरूद्ध यौन
हिंसा का
प्रश्न है,
कानून लिंग
आधारित नहीं
है। उल्लेखनीय
है कि पॉसको
अधिनियम में
'बलात्कार'
की जगह 'यौन
आक्रमण' शब्द
का इस्तेमाल
किया गया है।
इसकी परिभाषा
बहुत विस्तृत
है और इसके
तहत गैर
शील-भंग
क्रिया सहित
मुख और गुदा
यौन तथा योनि,
गुदा और शरीर
के अन्य
छिद्रों में
किसी वस्तु
के जबरन
प्रवेश
संबंधी
अपराधों को भी
रखा गया है।
यदि पीडि़त को
गंभीर चोट
पहुंचे या अपराध
किसी अधिकार
सम्पन्न व्यक्ति
द्वारा किया
गया है तब इन
अपराधों में
'गंभीर' अपराध
की श्रेणी में
रखा गया है।
धारा प्रावधान
धारा
3 शील-भंग
आधारित यौन
आक्रमण : बच्चे
की योनि,
मुख, मूत्र
मार्ग या गुदा
में लिंग,
शरीर के अन्य
अंगों या किसी
पदार्थ को
घुसेड़ना या
लिंग दाखिल
करना। धारा
5 गंभीर यौनि-भंग
आधारित यौन
आक्रमण :
'अधिकार सम्पन्न
व्यक्ति'
और/या अतिरिक्त
चोट और घाव
पैदा किया
जाये। धारा
7 यौन
आक्रमण : यौन
इरादे से बच्चे
को स्पर्श
करना (गैर
यौनि-भंग) ।
बच्चे की
योनि, लिंग,
गुदा, स्तन
या किसी अन्य
अंग का स्पर्श
करना। धारा
11 यौन
उत्पीड़न : यौन
इरादे से कोई
शब्द कहना, ध्वनि
करना, इशारा
करना, शरीर का
कोई अंग
दिखाना, अश्लील
सामग्री
दिखाना। बच्चे
को उसका कोई
अंग दिखाने पर
मजबूर करना,
बच्चे का
पीछा करना,
उसका अश्लील
चित्रण करने
की धमकी देना।
धारा
13 और अश्लील
चित्रण : अश्लील
चित्रण के लिए
बच्चे का धारा
15 इस्तेमाल।
बिक्री के लिए
बच्चे के अश्लील
चित्रण को जमा
करना। धारा
19-21 अनिवार्य
सूचना : धारा
19(1) कोई भी व्यक्ति
जिसे यौन
अपराध किये
जाने की
जानकारी हो या
किसी बच्चे
पर अपराध होने
वाला है, इसकी
जानकारी हो। धारा
20(1) मीडिया,
होटलों,
लॉजों, अस्पतालों,
क्लबों, स्टूडियो
और
फोटोग्राफी
सुविधाओं में
प्रबंधन और स्टाफ
धारा 21 सूचना
देने या
रिकॉर्ड करने
में बरती गई
कोताही
दंडनीय है धारा
21(3), बहरहाल,
सूचना देने
में यदि बच्चे
से चूक होती
है तो वह
दंडनीय नहीं
है। पॉसको
अधिनियम के
तहत सभी
अपराधों को
गंभीर अपराध
माना जाता है।
ऐसे अपराध
गैर-जमानती और
संज्ञेय हैं
और सुनवाई
सत्र न्यायालय
में की जाती
है। भारतीय
दंड संहिता के
अंतर्गत
संशोधित प्रावधान
यह सभी
गंभीर अपराध
की श्रेणी में
आते हैं, अंत: यह
गैर ज़मानती
तथा संज्ञेय
हैं और ऐसे
मामलों की
सुनवाई सत्र
अदालतों
द्वारा किया
जाना है। एस
354 मारपीट
या शील भंग
करने की इच्छा
से आपराधिक
बल प्रयोग: यदि
कोई व्यक्ति
मारपीट करता
है या किसी
महिला का शील
भंग करने के
लिए आपराधिक
बल का प्रयोग
करता है एस
354 ए यौन
उत्पीड़न: यदि
कोई व्यक्ति
शारीरिक
संपर्क
बनाता है और
आगे बढ़ता है या
यौन इच्छा
पूर्ण करने
के लिए
अनुरोध करता
है, महिला की
इच्छा के
विपरीत अश्लील
तस्वीरें
दिखाता है या
अश्लील
टिप्पणियां
करता है एस
354 बी निर्वस्त्र
करने की इच्छा
से मारपीट या
आपराधिक बल
प्रयोग: यदि
कोई व्यक्ति
किसी महिला
को कपड़े
उतारने के
लिए पीटता है
या आपराधिक
बल का प्रयोग
करता है एस
354 सी ताक
झांक करना : यदि
कोई व्यक्ति
किसी महिला
को अंतरंग
अथवा निजी
कार्यों के
दौरान देखता
है या तस्वीर
खींचता है या
ऐसी तस्वीरों
को प्रसारित
करता है एस
376 डी पीछा
करना: यदि कोई
व्यक्ति
किसी महिला
का पीछा करता
है या महिला
द्वारा मना
किए जाने के
बावजूद उससे
संपर्क करता
है एस
509 किसी
महिला को
अपमानित
करने के लिए
शब्द,
भावभंगिमा
या अन्य कोई
क्रिया कलाप: यदि
कोई व्यक्ति
इस इच्छा से
कि इससे अमुक
की निजता भंग
होगी या सुना जाएगा,
कोई शब्द
बोलता है,
आवाज़
निकालता है,
कोई वस्तु
प्रदर्शित
करता है उपरोक्त
कम गंभीर
अपराध माने गए
हैं अंत: ऐसे
मामलों की
सुनवाई
संबंधित
क्षेत्र के
प्रथम श्रेणी के
न्यायिक
मजिस्ट्रेट (जेएमएफसी)
या
मेट्रोपॉलिटन
मजिस्ट्रेट
द्वारा की
जाएगी। इनमें
से कुछ ज़मानती
जबकि कुछ
गैरज़मानती
अपराध हैं। प्रक्रियागत
सुरक्षा उपाय:
महिलाओं और
बच्चों के
खिलाफ होने
वाली यौन
हिंसा के
वर्तमान क़ानून
के मुताबिक
प्राथमिकी
दर्ज़ किए जाने
से लेकर
मुकदमे की
सुनवाई तक
पीडि़त के
संरक्षण हेतु
सुरक्षा के
अनेक उपाय किए
जाते हैं। इनमें
से कुछ का
संक्षिप्त
विवरण निम्नलिखित
है: थाने में
प्रथम सूचना
रिपोर्ट दर्ज
किए जाने के
दौरान: प्राथमिकी
दर्ज कराने के
लिए पीडि़त को
थाने पर आना अनिवार्य
नहीं है।
प्राथमिकी
पीडि़त के
रिश्तेदार
या मित्र के
द्वारा दर्ज
कराई जा सकती
है, जो कि
शिकायतकर्ता
होगा। प्राथमिकी
लिखित में
होनी चाहिए और
इसे शिकायतकर्ता
को पढ़कर
सुनाया जाना
चाहिए और
प्राथमिकी की
एक प्रति बिना
किसी शुल्क
के
शिकायतकर्ता
को उपलब्ध
कराई जानी
चाहिए। प्राथमिकी
दर्ज करने में
असफलता एक
संज्ञेय अपराध
माना जाएगा। पीडि़त का
बयान दर्ज किए
जाने के
दौरान: प्राथमिकी
दर्ज किए जाने
के बाद पुलिस
अपराध के
संबंध में
पीडि़त का
विस्तृत
बयान दर्ज
करेगी, जो कि
सामान्य
भाषा में लिया
जाना चाहिए। पुलिस को
पीडि़त की
पहचान मीडिया
या जनता के बीच
सार्वजनिक
नहीं करना
चाहिए। किसी
महिला या बच्चे
को रात भर के
लिए हवालात
में नहीं रखा
जाना चाहिए। यदि
पीडि़त को अनुवादक
की जरूरत हो
तो, उपलब्ध
कराया जाना
चाहिए। प्राथमिकी
दर्ज किए जाने
के 24 घंटे के
अंदर देखभाल
और चिकित्सकीय
परीक्षण हेतु
पीडि़त को
नज़दीकी अस्पताल
में प | ||||||||||||
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